Description
प्रस्तावना
“यह श्रीमद्भागवत् पुराण सूर्य के समान तेजस्वी है और धर्म, ज्ञान आदि के साथ श्रीकृष्ण द्वारा अपने धाम चले जाने के उपरांत इसका उदय हुआ। जिन मनुष्यों ने कलियुग में अज्ञान के गहन अन्धकार के कारण अपनी दृष्टि खो दी है, उन्हें इस पुराण से प्रकाश प्राप्त होगा।” (श्रीमद्भागवतम् १.३.४३)
भारत का कालातीत ज्ञान प्राचीन संस्कृत ग्रन्थों अर्थात् वेदों में व्यक्त हुआ है, जो मानव ज्ञान के समस्त क्षेत्रों को स्पर्श करने वाला है। प्रारम्भ में इसका संरक्षण मौखिक परम्परा द्वारा होता रहा, किन्तु पाँच हजार वर्ष पूर्व सर्वप्रथम “श्रीभगवान् के साहित्यिक अवतार” श्रील व्यासदेव ने वेदों को लिखित रूप प्रदान किया। वेदों के संकलन के पश्चात् उन्होंने उनके सारांश को वेदान्तसूत्र के रूप में प्रस्तुत किया। श्रीमद्भागवतम् (श्रीमद्भागवत् पुराण) स्वयं श्रील व्यासदेव द्वारा विरचित उनके वेदान्तसूत्र का भाष्य है। इसकी रचना उन्होंने अपने आध्यात्मिक जीवन की परिपक्व अवस्था में अपने गुरु श्रीनारदमुनि के निर्देशन में की थी। “वैदिक वाङ्मय रूपी वृक्ष का परिपक्व फल” कहा जाने वाला यह श्रीमद्भागवतम् वैदिक ज्ञान का सर्वाधिक पूर्ण एवं प्रामाणिक भाष्य है।
श्रीमद्भागवतम् की रचना कर लेने के पश्चात् श्रील व्यासदेव ने अपने पुत्र मुनि श्रील शुकदेव गोस्वामी को इसका सार भाग हृदयंगम कराया। तत्पश्चात् श्रील शुकदेव गोस्वामी ने हस्तिनापुर (अब दिल्ली) में गंगातट पर विद्वान् मुनियों की एक सभा में महाराज परीक्षित को सम्पूर्ण श्रीमद्भागवतम् सुनाया। महाराज परीक्षित सम्पूर्ण संसार के चक्रवर्ती सम्राट और एक राजर्षि थे। उन्हें जब सचेत किया गया कि एक सप्ताह में उनकी मृत्यु हो जाएगी, तो उन्होंने अपना सम्पूर्ण साम्राज्य त्याग दिया और आमरण उपवास करने तथा आध्यात्मिक ज्ञान की प्राप्ति करने हेतु गंगा नदी के तट पर चले गए। श्रीमद्भागवतम् का शुभारम्भ सम्राट परीक्षित द्वारा श्रील शुकदेव गोस्वामी से पूछे इस गम्भीर प्रश्न से प्रारम्भ होता है : “आप महान् सन्तों तथा भक्तों के गुरु हैं। अतः मैं आपसे समस्तमनुष्यों के लिए और विशेष रूप से मरणासन्न मनुष्य के लिए पूर्णता का मार्ग दिखलाने की याचना करता हूँ। कृपया मुझे बताएँ कि मनुष्य के लिए श्रवण, कीर्तन, स्मरण और आराधन का विषय क्या होना चाहिए और उसे क्या नहीं करना चाहिए ? कृपया मुझे यह सब समझाइये।”
महाराज परीक्षित द्वारा पूछे गए इस प्रश्न तथा अनेकानेक प्रश्न, जो आत्मा की प्रकृति से लेकर ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति के विषय तक से सम्बन्ध रखते हैं, उनका श्रील शुकदेव गोस्वामी ने जो उत्तर दिया, उसे ऋषियों की सभा राजा की मृत्युपर्यन्त सात दिनों तक मन्त्रमुग्ध होकर सुनती रही। जब श्रील शुकदेव गोस्वामी ने श्रीमद्भागवतम् की कथा को प्रथम बार सुनाया, तब श्रील सूत गोस्वामी, जो वहीं उपस्थित थे; उन्होंने नैमिषारण्य के वन में ऋषियों की एक सभा में उसी कथा को पुनः सुनाया। जनसाधारण के आध्यात्मिक कल्याण की इच्छा से ये सभी ऋषिगण आरम्भ होने वाले कलियुग के दुष्प्रभावों के निवारण हेतु दीर्घकालीन यज्ञ-सत्रों का अनुष्ठान करने के लिए एकत्र हुए थे। जब इन ऋषियों ने प्रार्थना की कि श्रील सूत गोस्वामी वैदिक ज्ञान का सार कह सुनाएँ, तो उन्होंने अपनी स्मृति से श्रीमद्भागवतम् के सभी अठारह हजार श्लोक सुना दिये, जिन्हें श्रील शुकदेव गोस्वामी ने महाराज परीक्षित को सुनाया था।
श्रीमद्भागवतम् का पाठक वस्तुत: महाराज परीक्षित द्वारा पूछे गए प्रश्नों के श्रील शुकदेव गोस्वामी द्वारा दिये गए उत्तर श्रील सूत गोस्वामी के मुख से सुनता है। कहीं-कहीं श्रील सूत गोस्वामी नैमिषारण्य में एकत्र साधुओं के प्रतिनिधि, शौनक ऋषि द्वारा पूछे गए प्रश्नों के सीधे उत्तर देते हैं। इस प्रकार एक साथ दो प्रकार के संवाद सुनने को मिलते हैं- एक गंगातट पर महाराज परीक्षित तथा श्रील शुकदेव गोस्वामी के बीच और दूसरा नैमिषारण्य में श्रील सूत गोस्वामी तथा वहाँ एकत्रित साधुओं के प्रतिनिधि, शौनक ऋषि के बीच हुए संवाद। यही नहीं, बीच-बीच में श्रील शुकदेव गोस्वामी महाराज परीक्षित को उपदेश देते हुए ऐतिहासिक घटनाओं का भी वर्णन करते जाते हैं। वे उन विस्तृत दार्शनिक चर्चाओं का विवरण भी प्रस्तुत करते हैं, जो श्रीमैत्रेयमुनि तथा उनके शिष्य विदुर जैसे महात्माओं के बीच हुईं। श्रीमद्भागवतम् की इस ऐतिहासिक पृष्ठभूमि को समझ लेने पर पाठक इसमें आये हुए संवादों के मिश्रणतथा विभिन्न स्रोतों से आयी हुई घटनाओं को सरलता से समझ लेगा। चूँकि मूल पाठ में दार्शनिक साहित्य या ज्ञान ही महत्त्वपूर्ण है, कालक्रमिकता नहीं, अतः केवल श्रीमद्भागवतम् की विषयवस्तु के प्रति ही सचेष्ट रहने की आवश्यकता है, जिससे इसके गहन संदेश का रसास्वादन पूर्णतया किया जा सके।
इस संस्करण के अनुवादक (श्रील प्रभुपाद) ने श्रीमद्भागवतम् की तुलना मिश्री से की है-चाहे जहाँ से इसका रसास्वादन करें, सर्वत्र समान मिठास और स्वाद मिलेगा। अतएव श्रीमद्भागवतम् की मधुरता का रसास्वादन करने हेतु किसी भी भाग से पढ़ना शुरू किया जा सकता है। इस प्रारम्भिक रसास्वादन के पश्चात् गम्भीर पाठक को यह परामर्श दिया जाता है कि वह पुनः प्रथम स्कन्ध पर लौटे और तब श्रीमद्भागवतम् के विभिन्न स्कन्धों को उचित क्रमानुसार एक के उपरांत दूसरे स्कन्ध को पढ़े।
श्रीमद्भागवतम् का पहला संस्करण इस महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ का विस्तृत भाष्य सहित प्रथम पूर्ण अंग्रेजी अनुवाद था और इसे अंग्रेजी-भाषी जनता को व्यापक तौर पर उपलब्ध प्रथम संस्करण माना जाता है। पहले स्कन्ध से दसवें स्कन्ध के प्रथम भाग तक के प्रथम बारह खण्ड भारतीय धर्म तथा दर्शन के विश्व के सर्वाधिक प्रसिद्ध उपदेशक तथा अन्तर्राष्ट्रीय कृष्णभावनामृत संघ के संस्थापकाचार्य कृष्णकृपामूर्ति श्री श्रीमद् ए. सी. भक्तिवेदान्त स्वामी प्रभुपाद की विद्वत्ता एवं भक्तिमय प्रयास का परिणाम हैं। उनके उत्कृष्ट संस्कृत-पाण्डित्य और वैदिक संस्कृति तथा आधुनिक जीवन-पद्धति से घनिष्ठ परिचय के फलस्वरूप इस महत्त्वपूर्ण वरेण्य साहित्य का भव्य भाष्य प्रस्तुत किया जा रहा है। १९७७ में इस संसार से श्रील प्रभुपाद के तिरोधान के पश्चात्, के श्रीमद्भागवतम् के अनुवाद एवं टीका का भगीरथ कार्य उनके शिष्यों हृदयानन्द दास गोस्वामी और गोपीपराणधन दास द्वारा जारी रखा गया है।
पाठकों को यह कृति अनेक कारणों से महत्त्वपूर्ण लगेगी। जो मनुष्य भारतीय सभ्यता के सांस्कृतिक मूल में रुचि रखते हैं, उनके लिए यह लगभग प्रत्येक पक्ष पर विस्तृत जानकारी देने वाला व्यापक स्रोत है। तुलनात्मक दर्शन तथा धर्म के विद्यार्थियों के लिए श्रीमद्भागवतम् भारतीय महान् सांस्कृतिक धरोहर के अर्थ को समझने में तीक्ष्ण दृष्टि प्रदान करने वाला है। समाजविज्ञानियों तथानृतत्त्वशास्त्रियों के लिए श्रीमद्भागवतम् शांत एवं वैज्ञानिक ढंग से सुनियोजित वैदिक संस्कृति की व्यावहारिक कार्यपद्धति को प्रकट करने वाला है, जिसके सिद्धान्तों का एकीकरण अत्यन्त विकसित सार्वभौम आध्यात्मिक दृष्टिकोण के आधार पर हुआ था। साहित्य के अध्येताओं को श्रीमद्भागवतम् उत्कृष्ट काव्य की सर्वश्रेष्ठ कृति प्रतीत होगा। मनोविज्ञान के अध्येताओं को यह चेतना, मानव-आचरण तथा आत्मस्वरूप के दार्शनिक अध्ययन के लिए महत्त्वपूर्ण दृष्टिकोण प्रदान करता है। अंत में, जो आध्यात्मिक अंतर्दृष्टि की खोज करने वाले हैं, उनके लिए श्रीमद्भागवतम् एक सरल एवं व्यावहारिक पथ-प्रदर्शक का काम करेगा, जो सर्वोच्च आत्मज्ञान तथा परम सत्य का साक्षात्कार कराएगा। भक्तिवेदान्त बुक ट्रस्ट द्वारा प्रस्तुत किया गया अनेक खण्डों में उपलब्ध यह सम्पूर्ण ग्रन्थ आने वाले दीर्घकाल तक आधुनिक मानव के बौद्धिक, सांस्कृतिक तथा आध्यात्मिक जीवन में महत्त्वपूर्ण स्थान बनाए रखेगा।
श्रीमद-भागवतम, एक महाकाव्य दार्शनिक और साहित्यिक क्लासिक जिसे श्रीमद भागवत महा पुराण, या भागवत के नाम से भी जाना जाता है। भारत का कालातीत ज्ञान वेदों में व्यक्त किया गया है, प्राचीन संस्कृत ग्रंथ जो मानव ज्ञान के सभी क्षेत्रों को छूते हैं और स्वयं की प्रकृति से लेकर ब्रह्मांड की उत्पत्ति तक हर चीज के बारे में प्रबुद्ध उत्तर प्रदान करते हैं।
मूल रूप से मौखिक परंपरा के माध्यम से संरक्षित, वेदों को सबसे पहले “भगवान के साहित्यिक अवतार” श्रील व्यासदेव ने लिखा था। “वैदिक साहित्य के वृक्ष का पका हुआ फल” के रूप में जाना जाता है, श्रीमद्-भागवतम वैदिक ज्ञान का सबसे पूर्ण और आधिकारिक विवरण है।
श्रीमद्भागवतम का यह 18 पुस्तकों का संस्करण एक विस्तृत और विद्वतापूर्ण टिप्पणी के साथ एकमात्र पूर्ण अंग्रेजी अनुवाद है, और यह हिंदी पढ़ने वाले लोगों के लिए व्यापक रूप से उपलब्ध पहला संस्करण है।
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